रविवार, 19 दिसंबर 2010

प्रलय पत्रिका: शिव जाग मनुज ललकार रहा

झिझक रहे थे कर ये कभी से 'प्रलय-पत्रिका' लिखने को,
आज वदन से सहसा निकला - "अब धरती रही न बसने को"।
रोक न शिव तू कंठ हलाहल, विकल रहे सब जलने को,
दसमुख कहो या कहो दुश्शासन, तरस रहे हम तरने को ।।

शिव देख मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा,
अस्तित्व ही तेरा नकार रहा , शिव जाग मनुज ललकार रहा।
तुम क्या संहारक बनते हो? प्रलय मनुज स्वयं ला रहा।
तुम क्या विनाश ला सकते जग में? विनाश मनुज स्वयं ला रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

चिर-वसुधा की हरियाली को तार-तार जब कर डाला,
निर्मल पावन गंगा को मलित पाप-पंकिल कर डाला,
स्वच्छ, स्वतंत्र प्राण-वायु में विष निरंतर घोल रहा,
है हम सा संहारक कोई? अभिमान मद डोल रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

सुजला सुफला कहाँ रही अब पावन धरती माता अपनी,
ऐसा कपूत पाया था किसने जो संहारे माता अपनी?
सुर-सरिता-जीवनधरा कैसी? अश्रु-धारा बस बचे हुए हैं,
समीर कहाँ अब शीत-शीत, शुष्क वायु बस तपे हुए हैं।
हे कैलाशी, अब बतलाओ - विनाश को अब क्या बचे हुए हैं?
हम भी तुम सम विनाशकारी, यह मूक भाषा में बोल रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

एक था भागीरथ जिसने, जग में गंगा का आह्वाहन किया,
उग्र-वेग संचित कर शिव, तुमने धरती को धीर-धार दिया।
निर्मल-पावन सुर-गंगा में जगती के कितने ही पाप धुले,
पर पाप धर्म बन गया जहाँ पर, पाप धोना हो कठिन वहाँ पर।
पाप-पुंज बन गयी है गंगा, शील-भंग अब हुआ है उसका,
गंगाधर, शिखा की शोभा को, मानव कलंकित कर रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

क्या तू शशिधर है सच में ? तो देख शशि भी है इनके वश में।
यह सुनकर मन कभी हर्षित होता था - "मानव मयंक तक पहुँच चुका है",
फिर चिर-विषाद सा हुआ है मन में, किसका तांडव हो रहा है जग में ?
धरती की शोभा नाश रहा,  शशी-शोभा-नाश विचार रहा,
भविष्य झाँक और फिर बतला - कैसा तेरा श्रृंगार रहा ?
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

कितने उदहारण दूँ मैं तुझको, लज्जित तू हो जाएगा,
तू क्या संहारक कहलायेगा?
अमरनाथ का लुप्त होता हिमलिंग
सुनी थी मैंने अनगिनत ही कीर्तियाँ ज्योतिर्लिंग अमरनाथ की,
मन में श्रद्धा, भक्ति में निष्ठा, ले करते सब यात्रा अमरनाथ की,
कितने ही लालायित भक्त, उस हिमलिंग का दर्शन करते,
प्रान्त-प्रान्त से आते उपासक, अपना जीवन धन्य करते।
पर हिम शिखा पर बसने वाले, भांग धतुरा रसने वाले,
इस तपती धरती पर अब, तू एक हिम लिंग को तरस रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

हे पिशाच के गण-नायक, हे रावण-भक्तिफल-दायक,
पिशाचमयी मानव यहाँ सब, मानवमयी रावण यहाँ सब।
अब राम एक भी नहीं धरा पर, क्या होगा अगणित रावण का ?
रावण संहारक लंका का तो मानव संहारक निज-वसुधा का।
तुम सम शक्तिमयी हम भी हैं, सुन देख दशानन हूँकार रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

कब तक रहोगे ध्यान-लीन, कर रहे तुम्हे सब मान-हीन।
अधर्म-ताप तप रहा है व्योम, पाप-ताप तप रही है धरती,
मानवता मानव से लड़ती, मृत्यु संग आलिंगन करती।
अब शक्ति-पट खोल हे शिव, त्राण को तरस रहे सब जीव,
यह पाप-पंकज धिक्कार रहा - "अरे कैसा तू दिगपाल रहा?"
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

नटराजन नृत्य करो ऐसा की नवयुग का फिर नव-सृजन हो,
पाप-मुक्त होवे यह जगती, धरती फिर से निर्जन हो,
दसो दिशायें शान्त हो, पुनः वही जन-एकांत हो,
संसकृतियां फिर से बसें, न कोई भय-आक्रांत हो,
और शक्ति तुम्हे अब शिव की शपथ- "फिर शक्ति दुरुपयोग न हो"।  – प्रकाश ‘पंकज’

* कर: हाथ
* वदन: मुख

* चित्र: गूगल साभार

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

भारत बनाम भ्रष्टाचार: 'प्रतिकार' – राजा सशंकित, प्रजा सशंकित और यह ध्वजा सशंकित

राजा सशंकित, प्रजा सशंकित और यह ध्वजा सशंकित,
चव्हाण-कलमाड़ी
सोंचता हूँ देश की धरती, तुझे त्याग ही दूँ ।
पर, 
तज नहीं सकता जो प्राणों से भी प्यारा हो,
वो जिसने गोद में पाला, जो सर्वस्व हमारा हो।
उनके रक्त की उष्ण धार को फिर से बहा देंगे,
जो इस धरा पर लूट का व्यापार रचते हैं।
वे उस जमीं की लूट का धन ले बटोरे हैं,
जिस जमीं पर जान हम अपनी छिड़कते हैं।।१।।


शिक्षा प्रताड़ित, गुरु प्रताड़ित आज हर विद्या प्रताड़ित,
सोंचता हूँ देश के गुरुकुल, तुझे भूल ही जाऊँ।
पर,
भुला नहीं सकता जो कंठों से गुजरता हो,
जो विद्या हमारी हो, जो गांडीव हमारा हो।
उन सब दलालों को हम चुन-चुन निकालेंगे,
जो शिक्षा के नाम का व्यापार रचते हैं।
वे उस शिक्षा के लूट का धन ले बटोरे हैं,
जिस शिक्षा के लिए हम अपने घर-बार खरचते हैं।।२।।


संस्कृति  विसर्जित, भाषा विसर्जित, राष्ट्र का हर गौरव विसर्जित,
गिलानी-अरुंधती
चाहता हूँ देश की माटी, तुझे खोखला कह दूँ।
पर,
गर्व न कैसे करूँ? गौरव इतिहास जिसका हो,
जनक जो सभ्यता का हो, गुरु जो सारे जहां का हो।
हम राष्ट्र द्रोही कंटकों का समूल नाश कर देंगें,
जो इस धरा का नमक खा, दुश्मन की गाते है।
वे उस धरा को तोड़ने का उद्योग करते हैं,
जिस धरा के सृजन में हम तन-मन लुटाते हैं।।३।।   – प्रकाश ‘पंकज’



गिलानी : एक कश्मीरी अलगाववादी जिसने दिल्ली में आकर अलगाववाद को भड़काया

पिछले  कुछ दिनों से मेरे मन की स्थिति दयनीय थी। चाह रहा था कुछ लिखना पर लिख नहीं पा रहा था। अचानक कल रात फूट परे ये शब्द। करुण स्थिति में लिखी गई यह कविता समाज के कुछ ऐसे कुख्यात प्रकार के लोगों को समर्पित है जो की "निम्न" हैं :

अनुच्छेद।।१।।  कलमाड़ी, अशोक चव्हाण, ए. राजा और उन जैसे भ्रष्ट लोगों के लिए।
अनुच्छेद।।२।। शिक्षा के व्यापारियों के लिए।
अनुच्छेद।।३।। गिलानी, अरुंधती और उन जैसे अन्य देशद्रोहियों / राष्ट्र-विरोधियों के लिए।

*चित्र: गूगल साभार

शनिवार, 6 नवंबर 2010

ईश्वर भी क्या व्यापारी है?

















ईश्वर तो प्यासा केवल प्रेम का , प्रेम में परित्याग का ,
चरित्र में सदभाव का , सदभाव के संचार का ,
मूढ़ता में ज्ञान का , ज्ञान के विस्तार का ,
निर्जिवितों में प्राण का, रक्त के प्रवाह का ,
प्रफुल्लितों से मेघ का , सुयश समृद्धि का ,
सुखद चंद्रवृष्टि का , सम्यक सुदृष्टि का ,
सजगता के भ्रूण का , विश्वास के एक नव अरुण का।  – प्रकाश ‘पंकज’


रविवार, 24 अक्तूबर 2010

जठराग्नि तुम्हें सारे अधिकार देती है।


जठराग्नि तुम्हें सारे अधिकार देती है।

भूखे हो? हाथ खाली हैं?
जिनके हाथ भरे हैं उनसे लो, छीनो, खाओ,
कोई पाप न लगेगा।
घबराओ मत, भूख तुम्हें सारे अधिकार देती है ।

जीने का अधिकार सबको है,
प्राकृतिक सम्पत्ति और उनसे जनित सारी सम्पत्तियों पर
सबका बराबर अधिकार है ।

भूखों! उठ्ठो!
खा जाओ समाज में फैली सारी असमानताओं को।

धर्म, नारी-मुक्ति, दलित-मुक्ति के नाम पर
राजनितिक  व्यापार करने वालों,
पहले क्षुधा-मुक्ति दिलाओ,
नहीं तो एक दिन यही भूख तुम्हें निगल जायेगी,
खा जायेगी तुम्हारी सत्ता को।

और डार्विन, एक दिन भगत फिर पैदा होगा 
और तेरे उस "सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट" वाले 
कुरूप सत्य को झुठला कर चला जायेगा।   – प्रकाश 'पंकज'

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

दिनकर जी के जन्म दिवस पर एक कवितांजलि: ईश्वर के काव्यदूत

राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' जी के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर मेरी और से एक कवितांजलि :


               "ईश्वर के काव्यदूत "

ओ ईश्वर के काव्यदूत तुम फिर से मही पर आओ,
मानवता फिर सुप्त हो चली आकार उसे जगाओ।

जननी के माथे पर अब भी लटक रही तलवारें,
रोज रोज सुनते रहते हम शत्रु की ललकारें।

कहीं धमाका-आगजनी, फिर कहीं खून की होली,
आतंकित हैं लोग यहाँ, सूनी माँओं की झोली।

सिंहदन्त से गिनती सीखे, अब वैसे शूर नहीं हम,
राष्ट्र जो बांधे एक सूत्र में, लौह-पुरुष नहीं हम।

आ जाओ अब हममें उतना साहस नहीं बचा है,
भरत के पुत्रों के वक्षों में पावक नहीं बचा है।

आओ आकर राष्ट्र जगाओ, भरो प्राण में शक्ति,
राष्ट्रद्रोह की कील उखारें माँ भारती की भक्ति।

धधकानी होंगी तुमको फिर वैसी ही ज्वालायें,
जिस ज्वाला से दीप्त हुई थी स्वाधीनता की राहें।   
– प्रकाश ‘पंकज’

सोमवार, 13 सितंबर 2010

उतिष्ठ हिन्दी! उतिष्ठ भारत! उतिष्ठ भारती! पुनः उतिष्ठ विष्णुगुप्त!

मैं हिन्दी का पिछला प्यादा, शपथ आज लेता हूँ,
आजीवन हिन्दी लिखने का दायित्व वहन करता हूँ।


रस घोलूँगा इसमें इतने, रस के प्यासे आयेंगे,
वे भी डूब इस रम्य सुरा मे मेरे साकी बन जायेंगे।

कलम बाँटूंगा उन हाथों को जो हाथें खाली होंगी,
वाणी दूंगा मातृभाषा की जो जिह्वा नंगी होगी।

कल-कल करती सुधा बहेगी हर जिह्वा पर हिन्दी की,
नये नये सैनिक आवेंगे सेना मे तब हिन्दी की।

हिन्दी के उस नव-प्रकाश मे फिर राष्ट्र जगमगाएगा,
माँ भारती की जिह्वा पर अमृतचसक लग जायेगा।

हिन्दी बैठी डूब रही है आज फूटी एक नाव पे,
हम भी तो हैं नमक छिड़कते उसके रक्तिम घाव पे।

हिन्दी सरिता सरस्वती है आज लुप्त होने वाली,
विदेशज भाषा तम-प्रवाह में गुप्त कहीं सोने वाली।

देखो, संस्कृत उठ चुकी अब हिन्दी भी उठ जाएगी,
हिन्द देश के भाषा की अस्मिता ही मिट जाएगी।

उधार की भाषा कहना क्या? चुप रहना ही बेहतर होगा,
गूंगे रहकर जीना क्या? फिर मरना ही बेहतर होगा।

हिन्द के बेटों जागो अब तो हिन्दी को शिरोधार्य करो,
राष्ट्र की गरिमा, मातृभाषा का भी कुछ तुम ध्यान करो

छेत्रवाद की राजनीति मे इस भाषा पर न चोट करो,
हिन्दी मे है श्रद्धा हमारी, कहीं और हो कोई खोट कहो।

पंकज जैसी निर्मल हिन्दी दोष न इस पर डालो,
राष्ट्र एक हो भाषा-सूत्र से अब फूट न इसमें डालो।

आज वाचकों करते आह्वाहन हम राष्ट्र के हर कोने से,
लोकभाषा की थाती ले आओ, रुको न एकत्र होने से।

हिन्दी के इस ज्ञानसागर को हमें आज मथना होगा,
फिर से समस्त बृहस्पतियों को एक माला में गुथना होगा।

उठो भाषा के विष्णुगुप्त फिर चमत्कार दिखलाओ,
विदेशज भाषा अलक्षेन्द्र से हमको त्राण दिलाओ।


जाओ, जैसे भी हो चन्द्रगुप्त फिर एक ढूंढ कर लाओ,
हिन्दी के विविध शस्त्रविद्या से सुसज्जित उसे कराओ

राष्ट्र को बाँधो एक सूत्र मे, फिर धननन्दों का शमन करो,
हिन्दी राष्ट्र-भाषा बने, फिर शिखा को बंधन-मुक्त करो।

पुनः उतिष्ठ विष्णुगुप्त!  उतिष्ठ भारत!  उतिष्ठ हिन्दी! 
उतिष्ठ पंकज!   – प्रकाश ‘पंकज’

* अलक्षेन्द्र : सिकंदर 

और अन्त में शिक्षक जागृति का यह आह्वाहन

जो मेरी वाणी छीन रहे हैं, मार डालूं उन लुटेरों को।

जो मेरी वाणी छीन रहे हैं, मार डालूं उन लुटेरों को।

मेरा सर फिर गया,
आंखें लाल,
शरीर गुस्से से काँप रहा है,
सांसों का तीव्र आवागमन ।

मार डालूं उन लुटेरों को जो छीन रहे हैं मुझसे मेरी वाणी।
हमें गूंगा कर रहे हैं,
हमारा सबसे समृद्ध उपहार छीन रहे हैं हमसे,
पाई है जो हमने अपने पूर्वजों से।

भाषा की खोज मे हमने
न जाने कितनी शताब्दियाँ गवाई होंगी
इसका अनुमान लगाना भी हमारे बस की बात नहीं,
और आज हम ही अपने इस अनुपम सृजन की बली चढ़ा रहे हैं ।

सच कहता हूँ, जी करता है;
भीम सामान मैं भी कुछ क्षण मानवता भूल
बन जाऊं रक्तपिपासु उनका जो हमसे लूट रहे हैं हमारी भाषा का धन,
और उन सपोलों का भी जो हमारे होकर भी साथ दे रहे हैं उन लुटेरों का।

हिन्दी भाषा हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति,
हमारी समृद्धि की परिपक्वता का प्रतीक है ।

शपथ लेता हूँ, मिटने न दूंगा अपनी भाषा को,
और मिटा दूंगा उन सबको जो आवें पथ मे ।  – प्रकाश ‘पंकज’


माफ कीजियेगा अगर कहीं भी बुरा लगा तो, ये मेरे कुछ छन्भंगुर नकारात्मक विचार थे जब मैं इस वर्ष जुलाई में अमेरिका में था। मैंने वहां देखा की जब भी कोई भारतीय (मैं बात कर रहा हूँ अपने व्यावसायिक वर्ग की) आपस में जब मिलते थे (भले ही हिन्दी भाषी क्यों न हों), उनके वार्तालाप की भाषा भी अंग्रेजी ही होती थी। यह अपवाद तब होता था जब दो बंगाली एक दुसरे से मिलते थे। जहाँ भी मैंने बंगालियों को देखा अपनी भाषा में बात करते देखा, और मुझे ये बात बहुत अच्छी लगती थी। और एक ग्लानी सी भी होती थी मन में कि हम हिन्दीभाषियों कि परवरिश में कहाँ त्रुटि रह गयी कि यह भाषा की महत्ता कहीं दूर पीछे छूट गई।
पर कोई तो बात है जो अपने ही लोग हिन्दी से दूर होते जा रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि तकनीकी शिक्षा विदेशी भाषा होती है सिर्फ इसलिए हम अपने मूल को भूल रहे हैं। कारण हो सकता है हिन्दी का समय के साथ न ढलना, योग्य सेनानियों की निष्ठा में कमी और भी बहुत कुछ जो विचारणीय है । पर इसमें कहीं भी दो राय नहीं कि भण्डार असीमित है हिन्दी का।

सोमवार, 15 मार्च 2010

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम भगत गुरु सुखदेव !


 मानव धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !
राष्ट्र धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !
पुत्र धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !
बन्धु धर्म पराकाष्ठा
...........भगत गुरु सुखदेव !

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम
...........भगत गुरु सुखदेव !

परिभाषा है
जागृति की
...........भगत गुरु सुखदेव !
परिभाषा
है क्रांति की
...........भगत गुरु सुखदेव !
परिभाषा
संग्राम की
...........भगत गुरु सुखदेव !
परिभाषा
बलिदान की
...........भगत गुरु सुखदेव !

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम
...........भगत गुरु सुखदेव !

प्रतारितों का त्राण है
...........भगत गुरु सुखदेव !
ज्वलित क्रांति का प्राण है
...........भगत गुरु सुखदेव !
स्वतंत्रता की आन है
...........भगत गुरु सुखदेव !
अमर-अमिट बलिदान है
...........भगत गुरु सुखदेव !

भगत गुरु सुखदेव भजो तुम
...........भगत गुरु सुखदेव !

-प्रकाश 'पंकज'

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

मंदिर मस्जिद मिट जाने दो, मरघट उनको हो जाने दो ।


मंदिर-मस्जिद मिट जाने दो, मरघट उनको हो जाने दो ,
तुम न रोपो आज शिवालय, शिव को धरती पर आने दो ,
फिर तांडव जग में मच जाने दो, चिर वसुधा को धँस जाने दो ।
- प्रकाश 'पंकज'

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

शुभान्त - एक शुभारंभ


 शुभान्त !   - एक शुभारंभ 

कामनाएँ, मधुर कामनाएँ, शुभ कामनाएँ,
कामनाएँ आपके उज्जवल भविष्य की,
कामनाएँ हर संघर्ष की, संघर्ष में विजय की,
सविश्वास डटे रहने की, ज्ञान से झुके रहने की ।
कामनाएँ अविरत ज्ञानोपार्जन की,
कामनाएँ ज्ञान बांटने की, भटकों को मार्ग बताने की,
मंगल कामनाएँ आपके पथ प्रदर्शक जीवन की ।

इच्छाएँ, हमारी आन्तरिक इच्छाएँ,
इच्छाएँ आपसे जुड़े रहने की,
एक डोर से बंधे रहने की ।
जीवन के इस कर्मक्षेत्र में
पुनः मिलकर शस्त्र उठाने की
फिर विजय धुनी रमाने की ।
मंगल कामनाएँ आपके सुखद जीवन की ।
आशाएँ, हमें याद रखे जाने की......

सप्रेम,
-प्रकाश 'पंकज'

(यह कविता हमारे सह-कर्मी के लिए उनकी विदाई के अवसर पर )

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

झूठी है यह "अमन की आशा", फिर काँटों भरी एक चमन की आशा

अमन-अमन हम रटते आये, घाव पुराने भरते आये ,
झूठी पेश दलीलों पर , शत्रु को मित्र समझते आये ।
झूठी है यह "अमन की आशा",  फिर काँटों भरी एक चमन की आशा,
अमन-चैन के मिथ्या-भ्रम में , शीश के मोल चुकाते आये ।  - पंकज

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

शक्ति तुम्हे अब शिव की शपथ- "फिर शक्ति दुरुपयोग न हो"

 
( मेरी नयी कविता 'प्रलय-पत्रिका' की कुछ पंक्तियाँ )

शशिधर  नृत्य करो ऐसा की नवयुग का फिर नव-सृजन हो,
पाप-मुक्त होवे यह जगती, धरती फिर से निर्जन हो,
दसो दिशायें शान्त हो, पुनः वही जन-एकांत हो,
संसकृतियां फिर से बसें, न कोई भय-आक्रांत हो,
और शक्ति तुम्हे अब शिव की शपथ- "फिर शक्ति दुरुपयोग न हो" ।  – प्रकाश ‘पंकज’

फ़िर एक सितारा टूट चला




प्रकृति का अभिशाप मानव



गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर -मेरी पहली कविता




इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे,
इनती खुशियाँ भी न देना, दुःख पर किसी के हंसी आने लगे ।

नहीं चाहिए ऐसी शक्ति जिसका निर्बल पर प्रयोग करूँ,
नहीं चाहिए ऐसा भाव किसी को देख जल-जल मरूँ ।
ऐसा ज्ञान मुझे न देना अभिमान जिसका होने लगे,
ऐसी चतुराई भी न देना लोगों को जो छलने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

इतनी भाषाएँ मुझे न सिखाओ मातृभाषा भूल जाऊं,
ऐसा नाम कभी न देना कि पंकज कौन है भूल जाऊं ।
इतनी प्रसिद्धि न देना मुझको लोग पराये लगने लगे,
ऐसी माया कभी न देना अंतरचक्षु भ्रमित होने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

ऐसा भग्वन कभी न हो मेरा कोई प्रतिद्वंदी हो,
न मैं कभी प्रतिद्वंदी बनूँ, न हार हो न जीत हो।
ऐसा भूल से भी न हो, परिणाम की इच्छा होने लगे,
कर्म सिर्फ करता रहूँ पर कर्ता का भाव न आने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे ।

ज्ञानी रावण को नमन, शक्तिशाली रावण को नमन,
तपस्वी रावण को स्वीकारूं , प्रतिभाशाली रावण को
स्वीकारूं
पर ज्ञान-शक्ति की मूरत पर, अभिमान का लेपन न हो,
स्वांग का भगवा न हो, द्वेष की आँधी न हो, भ्रम का छाया न हो,
रावण स्वयम् का शत्रु बना, जब अभिमान जागने लगे ।
इतनी ऊँचाई न देना ईश्वर कि धरती पराई लगने लगे । – प्रकाश ‘पंकज’




"itni unchai na dena ishwar ki dharati parai lagne lage"