गुरुवार, 23 सितंबर 2010

दिनकर जी के जन्म दिवस पर एक कवितांजलि: ईश्वर के काव्यदूत

राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' जी के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर मेरी और से एक कवितांजलि :


               "ईश्वर के काव्यदूत "

ओ ईश्वर के काव्यदूत तुम फिर से मही पर आओ,
मानवता फिर सुप्त हो चली आकार उसे जगाओ।

जननी के माथे पर अब भी लटक रही तलवारें,
रोज रोज सुनते रहते हम शत्रु की ललकारें।

कहीं धमाका-आगजनी, फिर कहीं खून की होली,
आतंकित हैं लोग यहाँ, सूनी माँओं की झोली।

सिंहदन्त से गिनती सीखे, अब वैसे शूर नहीं हम,
राष्ट्र जो बांधे एक सूत्र में, लौह-पुरुष नहीं हम।

आ जाओ अब हममें उतना साहस नहीं बचा है,
भरत के पुत्रों के वक्षों में पावक नहीं बचा है।

आओ आकर राष्ट्र जगाओ, भरो प्राण में शक्ति,
राष्ट्रद्रोह की कील उखारें माँ भारती की भक्ति।

धधकानी होंगी तुमको फिर वैसी ही ज्वालायें,
जिस ज्वाला से दीप्त हुई थी स्वाधीनता की राहें।   
– प्रकाश ‘पंकज’

सोमवार, 13 सितंबर 2010

उतिष्ठ हिन्दी! उतिष्ठ भारत! उतिष्ठ भारती! पुनः उतिष्ठ विष्णुगुप्त!

मैं हिन्दी का पिछला प्यादा, शपथ आज लेता हूँ,
आजीवन हिन्दी लिखने का दायित्व वहन करता हूँ।


रस घोलूँगा इसमें इतने, रस के प्यासे आयेंगे,
वे भी डूब इस रम्य सुरा मे मेरे साकी बन जायेंगे।

कलम बाँटूंगा उन हाथों को जो हाथें खाली होंगी,
वाणी दूंगा मातृभाषा की जो जिह्वा नंगी होगी।

कल-कल करती सुधा बहेगी हर जिह्वा पर हिन्दी की,
नये नये सैनिक आवेंगे सेना मे तब हिन्दी की।

हिन्दी के उस नव-प्रकाश मे फिर राष्ट्र जगमगाएगा,
माँ भारती की जिह्वा पर अमृतचसक लग जायेगा।

हिन्दी बैठी डूब रही है आज फूटी एक नाव पे,
हम भी तो हैं नमक छिड़कते उसके रक्तिम घाव पे।

हिन्दी सरिता सरस्वती है आज लुप्त होने वाली,
विदेशज भाषा तम-प्रवाह में गुप्त कहीं सोने वाली।

देखो, संस्कृत उठ चुकी अब हिन्दी भी उठ जाएगी,
हिन्द देश के भाषा की अस्मिता ही मिट जाएगी।

उधार की भाषा कहना क्या? चुप रहना ही बेहतर होगा,
गूंगे रहकर जीना क्या? फिर मरना ही बेहतर होगा।

हिन्द के बेटों जागो अब तो हिन्दी को शिरोधार्य करो,
राष्ट्र की गरिमा, मातृभाषा का भी कुछ तुम ध्यान करो

छेत्रवाद की राजनीति मे इस भाषा पर न चोट करो,
हिन्दी मे है श्रद्धा हमारी, कहीं और हो कोई खोट कहो।

पंकज जैसी निर्मल हिन्दी दोष न इस पर डालो,
राष्ट्र एक हो भाषा-सूत्र से अब फूट न इसमें डालो।

आज वाचकों करते आह्वाहन हम राष्ट्र के हर कोने से,
लोकभाषा की थाती ले आओ, रुको न एकत्र होने से।

हिन्दी के इस ज्ञानसागर को हमें आज मथना होगा,
फिर से समस्त बृहस्पतियों को एक माला में गुथना होगा।

उठो भाषा के विष्णुगुप्त फिर चमत्कार दिखलाओ,
विदेशज भाषा अलक्षेन्द्र से हमको त्राण दिलाओ।


जाओ, जैसे भी हो चन्द्रगुप्त फिर एक ढूंढ कर लाओ,
हिन्दी के विविध शस्त्रविद्या से सुसज्जित उसे कराओ

राष्ट्र को बाँधो एक सूत्र मे, फिर धननन्दों का शमन करो,
हिन्दी राष्ट्र-भाषा बने, फिर शिखा को बंधन-मुक्त करो।

पुनः उतिष्ठ विष्णुगुप्त!  उतिष्ठ भारत!  उतिष्ठ हिन्दी! 
उतिष्ठ पंकज!   – प्रकाश ‘पंकज’

* अलक्षेन्द्र : सिकंदर 

और अन्त में शिक्षक जागृति का यह आह्वाहन

जो मेरी वाणी छीन रहे हैं, मार डालूं उन लुटेरों को।

जो मेरी वाणी छीन रहे हैं, मार डालूं उन लुटेरों को।

मेरा सर फिर गया,
आंखें लाल,
शरीर गुस्से से काँप रहा है,
सांसों का तीव्र आवागमन ।

मार डालूं उन लुटेरों को जो छीन रहे हैं मुझसे मेरी वाणी।
हमें गूंगा कर रहे हैं,
हमारा सबसे समृद्ध उपहार छीन रहे हैं हमसे,
पाई है जो हमने अपने पूर्वजों से।

भाषा की खोज मे हमने
न जाने कितनी शताब्दियाँ गवाई होंगी
इसका अनुमान लगाना भी हमारे बस की बात नहीं,
और आज हम ही अपने इस अनुपम सृजन की बली चढ़ा रहे हैं ।

सच कहता हूँ, जी करता है;
भीम सामान मैं भी कुछ क्षण मानवता भूल
बन जाऊं रक्तपिपासु उनका जो हमसे लूट रहे हैं हमारी भाषा का धन,
और उन सपोलों का भी जो हमारे होकर भी साथ दे रहे हैं उन लुटेरों का।

हिन्दी भाषा हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति,
हमारी समृद्धि की परिपक्वता का प्रतीक है ।

शपथ लेता हूँ, मिटने न दूंगा अपनी भाषा को,
और मिटा दूंगा उन सबको जो आवें पथ मे ।  – प्रकाश ‘पंकज’


माफ कीजियेगा अगर कहीं भी बुरा लगा तो, ये मेरे कुछ छन्भंगुर नकारात्मक विचार थे जब मैं इस वर्ष जुलाई में अमेरिका में था। मैंने वहां देखा की जब भी कोई भारतीय (मैं बात कर रहा हूँ अपने व्यावसायिक वर्ग की) आपस में जब मिलते थे (भले ही हिन्दी भाषी क्यों न हों), उनके वार्तालाप की भाषा भी अंग्रेजी ही होती थी। यह अपवाद तब होता था जब दो बंगाली एक दुसरे से मिलते थे। जहाँ भी मैंने बंगालियों को देखा अपनी भाषा में बात करते देखा, और मुझे ये बात बहुत अच्छी लगती थी। और एक ग्लानी सी भी होती थी मन में कि हम हिन्दीभाषियों कि परवरिश में कहाँ त्रुटि रह गयी कि यह भाषा की महत्ता कहीं दूर पीछे छूट गई।
पर कोई तो बात है जो अपने ही लोग हिन्दी से दूर होते जा रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि तकनीकी शिक्षा विदेशी भाषा होती है सिर्फ इसलिए हम अपने मूल को भूल रहे हैं। कारण हो सकता है हिन्दी का समय के साथ न ढलना, योग्य सेनानियों की निष्ठा में कमी और भी बहुत कुछ जो विचारणीय है । पर इसमें कहीं भी दो राय नहीं कि भण्डार असीमित है हिन्दी का।