शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

कलेजे को समन्दर किया होता

एक बार जो जरा देख मुझे मुस्कुरा दिया होता, 
कसम खुदा की, कलेजे को समन्दर किया होता !

कभी जो तुमने सपनों से मुझे झाँक ही लिया होता,
मजाल! जो उसे बटोर के न हकीकत किया होता?

बस एक कदम खुद धरती पे हमारी जो तुम रखते,
कहते गर उसे नींव से न ईमारत किया होता !

अगले तिराहे से मिल चलने का गर भरोसा दिया होता,
सीना ठोक ज़माने से मैंने बगावत किया होता !

उस रात अँधेरी में मुझसे मिलने जो तुम आते,
सच कहूँ? तोहफे में तुझे चाँद-सितारां दिया होता !

तेरी नादानगी ने ही तो किया है यूँ बदहाल मुझे,
वरना हिम्मत किसमे थी? जमाना जीत लिया होता !

इस प्रेम ने ही लताड़ा है मुझे लत्ते की तरह वरना,
नाकारा ही सही, आज भी शीशे में  इज़्ज़तदार दिखा होता ! – प्रकाश ‘पंकज’

3 टिप्‍पणियां:

  1. Kavita achhi hai par padh kar aisa lagta hai jaise kavi ne apni kisi political rachna ko ek pyaar bhari rachna ke sath mix kar diya hai..shabdon ka selection thoda alag hona chahiye tha..

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  2. धन्यवाद आर्यन जी ....

    और सही कहा रूही जी आपने.. प्रेम को लेकर पहली बार कुछ लिखा हूँ... पर गोल गोल घूम कर वापस वहीँ आ गया अपने पुराने दंड पे.. :)
    जैसे :
    वरना हिम्मत किसमे थी? विश्व जीत लिया होता ! , बगावत किया होता !
    ... प्रेम रस से दूर भागती हुई वापस वीर रस को छूने का प्रयत्न कर रही है ये :)

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