
आज वदन से सहसा निकला - "अब धरती रही न बसने को"।
रोक न शिव तू कंठ हलाहल, विकल रहे सब जलने को,
दसमुख कहो या कहो दुश्शासन, तरस रहे हम तरने को ।।
शिव देख मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा,
अस्तित्व ही तेरा नकार रहा , शिव जाग मनुज ललकार रहा।
तुम क्या संहारक बनते हो? प्रलय मनुज स्वयं ला रहा।
तुम क्या विनाश ला सकते जग में? विनाश मनुज स्वयं ला रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
चिर-वसुधा की हरियाली को तार-तार जब कर डाला,
निर्मल पावन गंगा को मलित पाप-पंकिल कर डाला,
स्वच्छ, स्वतंत्र प्राण-वायु में विष निरंतर घोल रहा,
है हम सा संहारक कोई? अभिमान मद डोल रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

सुजला सुफला कहाँ रही अब पावन धरती माता अपनी,
ऐसा कपूत पाया था किसने जो संहारे माता अपनी?
सुर-सरिता-जीवनधरा कैसी? अश्रु-धारा बस बचे हुए हैं,
समीर कहाँ अब शीत-शीत, शुष्क वायु बस तपे हुए हैं।
हे कैलाशी, अब बतलाओ - विनाश को अब क्या बचे हुए हैं?
हम भी तुम सम विनाशकारी, यह मूक भाषा में बोल रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।

एक था भागीरथ जिसने, जग में गंगा का आह्वाहन किया,
उग्र-वेग संचित कर शिव, तुमने धरती को धीर-धार दिया।
निर्मल-पावन सुर-गंगा में जगती के कितने ही पाप धुले,
पर पाप धर्म बन गया जहाँ पर, पाप धोना हो कठिन वहाँ पर।
पाप-पुंज बन गयी है गंगा, शील-भंग अब हुआ है उसका,
गंगाधर, शिखा की शोभा को, मानव कलंकित कर रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
क्या तू शशिधर है सच में ? तो देख शशि भी है इनके वश में।
यह सुनकर मन कभी हर्षित होता था - "मानव मयंक तक पहुँच चुका है",
फिर चिर-विषाद सा हुआ है मन में, किसका तांडव हो रहा है जग में ?
धरती की शोभा नाश रहा, शशी-शोभा-नाश विचार रहा,
भविष्य झाँक और फिर बतला - कैसा तेरा श्रृंगार रहा ?
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
कितने उदहारण दूँ मैं तुझको, लज्जित तू हो जाएगा,
तू क्या संहारक कहलायेगा?
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अमरनाथ का लुप्त होता हिमलिंग |
सुनी थी मैंने अनगिनत ही कीर्तियाँ ज्योतिर्लिंग अमरनाथ की,
मन में श्रद्धा, भक्ति में निष्ठा, ले करते सब यात्रा अमरनाथ की,
कितने ही लालायित भक्त, उस हिमलिंग का दर्शन करते,
प्रान्त-प्रान्त से आते उपासक, अपना जीवन धन्य करते।
पर हिम शिखा पर बसने वाले, भांग धतुरा रसने वाले,
इस तपती धरती पर अब, तू एक हिम लिंग को तरस रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
मन में श्रद्धा, भक्ति में निष्ठा, ले करते सब यात्रा अमरनाथ की,
कितने ही लालायित भक्त, उस हिमलिंग का दर्शन करते,
प्रान्त-प्रान्त से आते उपासक, अपना जीवन धन्य करते।
पर हिम शिखा पर बसने वाले, भांग धतुरा रसने वाले,
इस तपती धरती पर अब, तू एक हिम लिंग को तरस रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
हे पिशाच के गण-नायक, हे रावण-भक्तिफल-दायक,
पिशाचमयी मानव यहाँ सब, मानवमयी रावण यहाँ सब।
अब राम एक भी नहीं धरा पर, क्या होगा अगणित रावण का ?
रावण संहारक लंका का तो मानव संहारक निज-वसुधा का।
तुम सम शक्तिमयी हम भी हैं, सुन देख दशानन हूँकार रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
पिशाचमयी मानव यहाँ सब, मानवमयी रावण यहाँ सब।
अब राम एक भी नहीं धरा पर, क्या होगा अगणित रावण का ?
रावण संहारक लंका का तो मानव संहारक निज-वसुधा का।
तुम सम शक्तिमयी हम भी हैं, सुन देख दशानन हूँकार रहा।
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
कब तक रहोगे ध्यान-लीन, कर रहे तुम्हे सब मान-हीन।
अधर्म-ताप तप रहा है व्योम, पाप-ताप तप रही है धरती,
मानवता मानव से लड़ती, मृत्यु संग आलिंगन करती।
अब शक्ति-पट खोल हे शिव, त्राण को तरस रहे सब जीव,
यह पाप-पंकज धिक्कार रहा - "अरे कैसा तू दिगपाल रहा?"
शिव जाग मनुज ललकार रहा, शिव देख मनुज ललकार रहा।
ati sundar ati uttam
जवाब देंहटाएंbhupendra singh mbbs07 kgmc lucknow
इस सुंदर रचना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद...आने वाले कल के लिए ढेर सारी शुभकामनाए...
जवाब देंहटाएंदैनिक भास्कर पर आशुतोष राणा का साक्षात्कार जरूर पढ़ें ..
जवाब देंहटाएंइसमें उनके हिन्दी और गंगा के प्रति श्रद्धा झलकती है
http://www.bhaskar.com/2010/04/26/kanpur-uttarpradesh-912986.html
बाजारू भाषा नहीं है हिन्दी : आशुतोष राणा
जवाब देंहटाएंकानपुर।
कानपुर के बारे में उन्होंने कहा कि यहां आकर मुझे बहुत अच्छा लगा। यहां के लोग बहुत ही श्रद्दावान, भक्तिवान और धार्मिक हैं। यहां के लोगों में धर्म और अर्थ का बहुत अच्छा मिश्रण है।
आध्यात्मिक रूप से कानुर को मैं बहुत ही सम्पन्न शहर मानता हूं। गंगा में बढ़ रहे प्रदूषण के सवाल पर बोले की गंगा को हम मां कहते है और जब मां अपने दायित्व का पालन हमारे मैल को साफ करके कर रही है तो पुत्र को भी उनको साफ रख कर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि जिस तरह से मां अपने रोगी पुत्र को नहीं छोड़ती है उसे पूर्ण स्वस्थ करके ही दम लेती है। उसी प्रकार से पुत्र की भी अपनी रोगी मां को नहीं छोड़ना चाहिए उसे रोग मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए। यदि हम गंगा को साफ नहीं रखेंगे तो वो हमें कैसी साफ रखेंगी।
http://www.bhaskar.com/2010/04/26/kanpur-uttarpradesh-912986.html
बहुत अच्छी रचना|
जवाब देंहटाएंपढते पढते बचपन की एक कविता विप्लव गान याद आ गयी|
इस सुन्दर रचना के लिए धन्यवाद|
hamesha achha aur sachha likhte raho... bahut shubh~kaamnayein!!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब .. सच में आज कितने ही रावण हैं विनाशक के रूप में ... आदम जात भी तो विनाशक है धेरती की ....
जवाब देंहटाएंaapka to jawab nhi ....bahut khub likha hai...
जवाब देंहटाएंoj aur jagran ki achchhi kavita.
जवाब देंहटाएंPankaj bhai.. bahut sundar kavita... Kash Manav jati is kavita mein chhupe Kavi Hridaya ki Shrishti ke prati vedna ko samajh paye... AttiSundar... Har Manushya k ek baar avashya padhi chahiye....
जवाब देंहटाएंachcha likha hai.
जवाब देंहटाएंवाह वाह ...ह्रदय स्पर्शी रचना....!!! प्रकाश-पंकज जी .....बहुत-बहुत बधाईयाँ ...!!! चित्र भी अद्बूत है भाई...!!!
जवाब देंहटाएंझिझक रहे थे कर ये कभी से 'प्रलय-पत्रिका' लिखने को, आज वदन से सहसा निकला - "अब धरती रही न बसने...
जवाब देंहटाएंBahut hi achhi rachna hian......
ऐसे ही प्रयास करते रहिये. कलम लगातार चलने से ही कलाम में निखार आता है.
जवाब देंहटाएंभैया, सब कुछ शिव ही क्यों करें, क्या उन्हों ने कहा है बदमाशी करने को.....करनी तो आपकी है..भुगतें शिव...कुछ आप भी तो करो या बताओ क्या करना है ..सिर्फ़ गाते रहने से क्या होगा...
जवाब देंहटाएंati sundar..
जवाब देंहटाएंhamesha ki tarah ek khoobsurat rachana..
सुन्दर रचना बधाई ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
जवाब देंहटाएंइस सुन्दर रचना के लिए धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंbahut sunder rachna hai aapki
जवाब देंहटाएंis bar mere blog par
" मैं "
बहुत सुंदर रचना कभी समय मिले तो यहाँ हमारे ब्लॉग //shiva12877.blogspot.com पर भी एक नज़र डालें
जवाब देंहटाएंsashakt rachnaayeeeeeeeeee
जवाब देंहटाएंआप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ......... अनेकानेक शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहें
दिनेश पारीक
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 19 मई 2018 को लिंक की जाएगी ....http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
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