सोमवार, 21 दिसंबर 2009

इन्सान खुद को शीशे में देख दंग है

Pankaj-patra-Insan-khud-ko-sheese-mein-dekh-dang-hai
यह कैसा प्रकाश जो राह दिखलाता नहीं,
यह कैसा प्रभात जब सूर्य उदित होता नहीं,
यह गुरु कैसा जिसे दक्षिणा की भूख है,
यह शिष्य कैसा जिसे गुरु का आदर नहीं,
वह ज्ञानी कैसा जिसे ज्ञान का अभिमान है,
वह ज्ञानी वैसा जो रावण के समान है,
ज्ञानी रावण के मन में फिर से, अभिमान की कैसी यह उठी उमंग है ।
धरती आसमान हवा ही नहीं इन्सान खुद को शीशे में देख दंग है । - प्रकाश 'पंकज'
यह कविता अनुभूति पर भी प्रकाशित: http://www.anubhuti-hindi.org/nayihawa/p/prakash_pankaj/index.htm

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया लिखते हैं आप . आगे भी लिखते रहे . धन्यबाद

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  2. यह कैसा प्रकाश जो राह दिखलाता नहीं
    यह कैसा प्रभात जब सूर्य उदित होता नहीं
    ....

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  3. सही कहा : न वो गुरु रहे न वो शिष्य , न वो ब्रह्मण रहे न ही उनका वो वेष

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  4. Pankaj ji great work done by you.....

    thanks a lot....you are different from other writers...

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  5. आप वाकई में बहुत अच्छा लिख रहे है. मेरी बधाई स्वीकार करे. चंद्रपाल,मुंबई chandrapal@aakhar.org

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  6. pankaj ji, dhanyabaad is amol rachana ke liye.

    Akanksha Jha

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